Sunday, May 30, 2021

त्याग का रहस्य

*त्याग का रहस्य: -*

एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन बन में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये।

नारदजी को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ, वे उसके वैभव की भूरि भूरि प्रशंसा करने लगे। 

उन्होंने उससे पूछा कि.. “वृक्ष राज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं?” 

सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया कि- “भगवान्! बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके। वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता।” 

नारदजी को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है। उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये।

सुरपुर में जाकर नारदजी ने पवन से कहा.. ‘अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है, सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए।‘ 

पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया।

सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था, उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई। वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया। उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन आया उसने बहुत प्रयत्न किया पर ढूँठ का कुछ भी बिगाड़ न सका। अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा।

कुछ दिन पश्चात् नारदजी उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी बन में फिर पहुँचे, पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है। नारदजी को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ। 

उन्होंने सेमर से पूछा- “पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो, इसका क्या रहस्य है?”

वृक्ष ने नारदजी को प्रणाम किया और नम्रता पूर्वक निवेदन किया- “ऋषिराज! मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ। संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ, परन्तु जब जरूरत समझता हूँ इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ। मुझे वैभव का गर्व नहीं था न अपने ठूँठ होने का अभिमान था इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ।“

*नारदजी समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है। इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है। यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे तो वह एक प्रकार का साधु ही है। ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।*

Thursday, May 27, 2021

कुछ सवाल

🔔🔔🔔🔔🔔
👉🏼 सब विद्या में श्रेष्ठ विद्या कौन सी है ❓
🔔 कृष्ण भक्ति ही सबसे बड़ी विद्या है 🔔
👉🏼 सबसे बड़ी कीर्ति क्या है ❓
🔔 कृष्ण प्रेम में डूबा एक भक्त, इस कल्मष भरे युग में एक कृष्ण भक्त होना ही सबसे बड़ी कीर्ति है 🔔
👉🏼 सबसे बड़ी सम्पत्ति क्या है ❓
🔔 श्री राधाकृष्ण कृपा को पाना ही इस संसार की सबसे बड़ी सम्पत्ति है 🔔
👉🏼 सबसे बड़ा दुःख क्या है ❓
🔔 कृष्ण भक्त अर्थात वैष्णवों का संग छूटना ही इस संसार का सबसे बड़ा दुःख है 🔔
👉🏼 सबसे बड़ी मुक्ति क्या है ❓
🔔 कृष्णप्रेम में डूबकर इस संसार से वैराग्य प्राप्त करना ही सबसे बड़ी मुक्ति है 🔔
👉🏼 भजन/कविता क्या है ❓
🔔 श्री राधाकृष्ण के प्रेम लीला को गाना ही भजन और कविता है 🔔
👉🏼 सबसे बड़ा श्रेय क्या है ❓
🔔 कृष्ण भक्तों को मिलाना ही सबसे बड़ा श्रेय है 🔔
👉🏼 स्मरण करने योग्य बातें क्या है ❓
🔔 कृष्ण का नाम उनका रूप, गुण एवं लीला का स्मरण ही सबसे उत्तम स्मरण के योग्य है 🔔
👉🏼 ध्यान में रखने योग्य बातें क्या है ❓
🔔 श्री राधाकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान ही सर्वोत्तम ध्यान में रखने योग्य है 🔔
👉🏼 सबसे उत्तम रहने योग्य स्थान क्या है ❓
🔔 श्री वृन्दावन धाम ही सबसे उत्तम रहने योग्य स्थान है 🔔
👉🏼 श्रवण करने योग्य सबसे उत्तम बातें क्या है ❓
🔔 श्री राधाकृष्ण की लीलाओं का श्रवण ही सबसे उत्तम है 🔔
👉🏼 सबसे उत्तम आराध्य ❓
🔔 श्री राधाकृष्ण को हृदय में विराजना ही सर्वोत्तम है 🔔
👉🏼 सबसे बड़ी मुक्ति क्या है ❓
🔔 कृष्ण का नाम स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग करना 🔔
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*कान्हा...... तुम दूर हो मगर दिल में ये एहसास होता है, कोई है जो हर पल दिल के पास होता है, याद तो सब की आती है मगर, तुम्हारी याद का एहसास ही कुछ ख़ास होता है …*

Sunday, May 23, 2021

एकादशी

मोहिनी एकादशी व्योन्जलि तृस्पृशा महाद्वादशि 
आठ प्रकार की महा-द्वादशी🔥* एकादशी व्रत के प्रसंग में अष्ट द्वादशी व्रत कथा को विशेष भाव से जानना चाहिये। ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीसूत गोस्वामी तथा श्रीशौनक ॠषि की बातचीत से पता चलता है कि उन्मीलनी, व्यंजुली, त्रीस्पर्शा, पक्षवर्द्धिनी, जया, विजया, जयन्ती और पापनाशिनी - यह अष्ट प्रकार की महाद्वादशी तिथियाँ महापुण्य स्वरूपिणी व सर्वपापहरिणी हैं।  इनमें से पहली चार तिथी के अनुसार व बाद की चार नक्षत्र के अनुसार मनायी जाती हैं।  जैसे - 1) उन्मीलनी - अगर एकादशी सम्पूर्ण है (एकादशी एक अरुणोदय से लेकर अगले दिन अरुणोदय में हो तो सम्पूर्ण  कहलाती है) और अगले दिन द्वादशी में वृद्धि प्राप्त करे, किन्तु द्वादशी वृद्धि न पाय तब वह द्वादशी - उन्मीलनी द्वादशी कहलाती है। 2) व्यंजुली - एकादशी वृद्धि न पाय, परन्तु द्वादशी वृद्धि पाय, तब यह व्यंजुली महाद्वादशी कहलाती है। यह महाद्वादशी सम्पूर्ण पापों का नाश कर देती है। 3) त्रिस्पर्शा - अरुणोदय में एकादशी हो, फिर सारे दिन-रात द्वादशी रहे व अगले दिन प्रातः त्रयोदशी हो, तब यह त्रिस्पर्शा द्वादशी कहलाती है। यह द्वादशी भगवान श्रीहरि को अत्यन्त प्रिय है। (एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी - तीनों एक ही तिथि में आने से त्रिस्पर्शा होती है) 4) पक्षवर्द्धिनी - अगर अमावस्या या पूर्णिमा में दो सूर्योदय आ जायें, तो एकादशी के दिन उपवास न करके, द्वादशी के दिन उपवास होता है । उसे पक्षवर्द्धिनी महाद्वादशी कहते हैं। ये चार महाद्वादशी तिथियां हैं, तिथि योग से। अब चार नक्षत्र योग से - 5) जया - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि पुनर्वसु नक्षत्र का योग हो तो, वह जया महाद्वादशी कहलाती है। इस तिथि को सभी तिथियों से श्रेष्ठ कहा जाता है। 6) विजया - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि श्रवणा नक्षत्र का योग हो तो वह महापुण्यवान विजया महाद्वादशी कहलाती है। भगवान श्रीवामन का आविर्भाव इसी श्रवणा नक्षत्र में हुआ था, अतः इस नक्षत्र की बहुत महिमा है। 7) जयन्ती - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि रोहिणी नक्षत्र का योग हो तो वह सर्व पाप हरणे वाली, सर्व पुण्य देने वाली, जयन्ती महाद्वादशी कहलाती है। चूंकि रोहिणी नक्षत्र में भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए थे, अतः इस महाद्वादशी की भी बहुत महिमा है । 8) पापनाशिनी - शुक्ल पक्ष की द्वादशी में यदि पुष्या नक्षत्र का योग हो तो वह महा-पुण्य स्वरूपिणी पापनाशिनी महाद्वादशी कहलाती है।  इस महाद्वादशी को उपवास करने से एकादशी व्रत से भी सहस्र गुणा ज्यादा फल लाभ होता है। यह ठीक है कि शास्त्रों में इन सब व्रतों के बहुत प्रकार के फल बताये गये हैं। , श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए श्रीहरि की प्रसन्नता होती है।

Thursday, May 20, 2021

मीरा चरित्र भाग 5

॥जय गौर हरि ॥
  ॥ मीरा चरित ॥ (4)

क्रमशः से आगे .............

 🌿 महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया । धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं । मन्दिर का नाम रखा गया "श्याम कुन्ज"। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा । 
         
         .   

🌿 ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा ।मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे..........  सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती ।

                 

🌿 वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छायी हुई थीं ।ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे ।आँखें मूँदे हुये मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है । बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी को थामें बैठी है । यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे कजरारे दीर्घ नेत्र .......... । मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी । उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया । वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि कौन अधिक मारक है - दृष्टि याँ मुस्कान ? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था ।

           
           🌿 उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये । हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में ।
     
       अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती  प्रतीत हुईं ।
       

           "थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं तेरो घड़ो उठवाय दूँगो । कहा नाम है री तेरो ? बोलेगी नाय ? मो पै रूठी है क्या ? भूख लगी है का ? तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ? ले , मो पै फल है ।खावेगी ?"
       
         उन्होंने फट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिये - "ले खा ।"
      

            🌿 मैं क्या कहती , आँखों से दो आँसू  ढुलक पड़े । लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था ।
    
         "  कहा नाम है तेरो ?"

"मी............रा" बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई ।
वे खिलखिला कर हँस पड़े ।" कितना मधुर स्वर है तेरो री ।"


🌿 "श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार ! " वह एकाएक चीख उठी ।समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिश य व्या कुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे ।दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया ।

           सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी ।फि र ह्रदय के उदगार  प्रथम  बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे ............

 मेहा बरसबों करे रे ,
     आज तो रमैया म्हाँरे घरे रे ।
   नान्हीं  नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
    सूखा सरवर भरे रे ॥

घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे ।
 मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
 मैं लियो पुरबलो वर रे ॥


🌿 पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया । पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली ।

क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं॥ 

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Wednesday, May 19, 2021

मीरा चरित्र भाग 4

॥जय गौर हरि ॥
  ॥ मीरा चरित ॥ (4)

क्रमशः से आगे .............

 🌿 महल के परकोटे में लगी फुलवारी के मध्य गिरधर गोपाल के लिए मन्दिर बन कर दो महीनों में तैयार हो गया । धूमधाम से गिरधर गोपाल का गृह प्रवेश और विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा हुईं । मन्दिर का नाम रखा गया "श्याम कुन्ज"। अब मीरा का अधिकतर समय श्याम कुन्ज में ही बीतने लगा । 
         
         .   

🌿 ऐसे ही धीरेधीरे समय बीतने लगा ।मीरा पूजा करने के पश्चात् भी श्याम कुन्ज में ही बैठे बैठे..........  सुनी और पढ़ी हुई लीलाओं के चिन्तन में प्रायः खो जाती ।

                 

🌿 वर्षा के दिन थे ।चारों ओर हरितिमा छायी हुई थीं ।ऊपर गगन में मेघ उमड़ घुमड़ कर आ रहे थे ।आँखें मूँदे हुये मीरा गिरधर के सम्मुख बैठी है । बंद नयनों के समक्ष उमड़ती हुई यमुना के तट पर मीरा हाथ से भरी हुई मटकी को थामें बैठी है । यमुना के जल में श्याम सुंदर की परछाई देख वह पलक झपकाना भूल गई ।यह रूप -ये कारे कजरारे दीर्घ नेत्र .......... । मटकी हाथ से छूट गई और उसके साथ न जाने वह भी कैसे जल में जा गिरी । उसे लगा कोई जल में कूद गया और फिर दो सशक्त भुजाओं ने उसे ऊपर उठा लिया और घाट की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुस्कुरा दिया । वह यह निर्णय नहीं कर पाई कि कौन अधिक मारक है - दृष्टि याँ मुस्कान ? निर्णय कैसे हो भी कैसे ? बुद्धि तो लोप हो गई, लज्जा ने देह को जड़ कर दिया और मन -? मन तो बैरी बन उनकी आँखों में जा समाया था ।

           
           🌿 उसे शिला के सहारे घाट पर बिठाकर वह मुस्कुराते हुए जल से उसका घड़ा निकाल लाये । हंसते हुये अपनत्व से कितने ही प्रश्न पूछ डाले उन्होंने ब्रज भाषा में ।
     
       अमृत सी वाणी वातावरण में रस सी घोलती  प्रतीत हुईं ।
       

           "थोड़ा विश्राम कर ले, फिर मैं तेरो घड़ो उठवाय दूँगो । कहा नाम है री तेरो ? बोलेगी नाय ? मो पै रूठी है क्या ? भूख लगी है का ? तेरी मैया ने कछु खवायो नाय ? ले , मो पै फल है ।खावेगी ?"
       
         उन्होंने फट से बड़ा सा अमरूद और थोड़े जामुन निकाल कर मेरे हाथ पर धर दिये - "ले खा ।"
      

            🌿 मैं क्या कहती , आँखों से दो आँसू  ढुलक पड़े । लज्जा ने जैसे वाणी को बाँध लिया था ।
    
         "  कहा नाम है तेरो ?"

"मी............रा" बहुत खींच कर बस इतना ही कह पाई ।
वे खिलखिला कर हँस पड़े ।" कितना मधुर स्वर है तेरो री ।"


🌿 "श्याम सुंदर ! कहाँ गये प्राणाधार ! " वह एकाएक चीख उठी ।समीप ही फुलवारी से चम्पा और चमेली दौड़ी आई और देखा मीरा अतिश य व्या कुल थीं और आँखों से आँसू झर रहे थे ।दोनों ने मिल कर शैय्या बिछाई और उस पर मीरा को यत्न से सुला दिया ।

           सांयकाल तक जाकर मीरा की स्थिति कुछ सुधरी तो वह तानपुरा ले गिरधर के सामने जा बैठी ।फि र ह्रदय के उदगार  प्रथम  बार पद के रूप में प्रसरित हो उठे ............

 मेहा बरसबों करे रे ,
     आज तो रमैया म्हाँरे घरे रे ।
   नान्हीं  नान्हीं बूंद मेघघन बरसे,
    सूखा सरवर भरे रे ॥

घणा दिनाँ सूँ प्रीतम पायो,
बिछुड़न को मोहि डर रे ।
 मीरा कहे अति नेह जुड़ाओ,
 मैं लियो पुरबलो वर रे ॥


🌿 पद पूरा हुआ तो मीरा का ह्रदय भी जैसे कुछ हल्का हो गया । पथ पाकर जैसे जल दौड़ पड़ता है वैसे ही मीरा की भाव सरिता भी शब्दों में ढलकर पदों के रूप में उद्धाम बह निकली ।

क्रमशः ............

॥श्री राधारमणाय समर्पणं॥ 

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Tuesday, May 18, 2021

Bhagwatam 9.4.18-20

Bhagwatam 9.4.18-20

स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो र्वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पर्शेऽङ्गसङ्गमम् । घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ॥१९॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥२०॥

In Bhagavad-gītā (7.1) the Lord recommends, mayy āsakta-manāḥ pārtha yogaṁ yuñjan mad-āśrayaḥ. This indicates that one must execute devotional service under the guidance of a devotee or directly under the guidance of the Supreme Personality of Godhead. It is not possible, however, to train oneself without guidance from the spiritual master. Therefore, according to the instructions of Śrīla Rūpa Gosvāmī, the first business of a devotee is to accept a bona fide spiritual master who can train him to engage his various senses in rendering transcendental service to the Lord. The Lord also says in Bhagavad-gītā (7.1), asaṁśayaṁ samagraṁ māṁ yathā jñāsyasi tac chṛṇu. In other words, if one wants to understand the Supreme Personality of Godhead in completeness, one must follow the prescriptions given by Kṛṣṇa by following in the footsteps of Mahārāja Ambarīṣa. It is said, hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa-sevanaṁ bhaktir ucyate: bhakti means to engage the senses in the service of the master of the senses, Kṛṣṇa, who is called Hṛṣīkeśa or Acyuta. These words are used in these verses. Acyuta-sat-kathodaye, hṛṣīkeśa-padābhivandane. The words Acyuta and Hṛṣīkeśa are also used in Bhagavad-gītā. Bhagavad-gītā is kṛṣṇa-kathā spoken directly by Kṛṣṇa, and Śrīmad-Bhāgavatam is also kṛṣṇa-kathā because everything described in the Bhāgavatam is in relationship with Kṛṣṇa

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why was the jiva soul granted free will when they could also misuse it?

A devotee once ask Srila Bhaktisiddhanta why was the jiva soul granted free will when they could also misuse it?

Srila Bhaktisiddhanta answered - 

“You are fighting for freedom. Don’t you know the value of having free will? Devoid of freedom the soul is only matter".

Furthermore freedom (free will) offers one the alternative to do either right or wrong Gandhi once told the British authorities.

”We want our freedom too.”

The British authorities replied -

“You are not fit to have self-government or your freedom. When you are fit, we shall give it to you.”

Gandhi replied,

“We want the freedom to do wrong too.”

So, freedom does not guarantee only acting in the right way; and that choice must be there to do wrong too.

Freedom means being able to choose "right or wrong".

The possibility of also rejecting Krishna must ALWAYS be there even in Vaikuntha and Goloka-Vrindavana because that's what free will means.

And this is always the case in the Spiritual Planets.

Our first choice AFTER rejecting Krishna in Vaikuntha or Goloka-Vrindavana, is to dominate and imitate Krishna, therefore it is that choice due to free will that causes the jiva soul to enter the material creation and try to dominate.

And such choices have nothing to do with the influence of Maya or the material energy because material energy does NOT exist in Vaikuntha or Goloka-Vrindavana.

As a result of this "choice", everything else in the material creation has developed.

So Srila Prabhupada has explained that the "original position" of the jiva soul is to be always with Krishna in a servitor reciprocal relationship based on voluntary loving exchanges.

As explained above, Maya can NEVER be blamed for the fall down of the jiva soul from Vaikuntha or Goloka-Vrindavana in any way.

This is because Maya, in her role as the personification of material energy, does NOT exist in Vaikuntha or Goloka-Vrindavana, therefore nothing material can exist there.

But "free will" does eternally exist there and has ALWAYS existed in Vaikuntha and Goloka Vrindavana!

The jiva souls are always responsible for their choices and actions in both the Spiritual Planets and the material creation.

Srila Prabhupada - “Unless there is a possibility of misusing our free will, there is no question of freedom.” (Dialectical Spiritualism, Critique of Descartes)

Srila Prabhupada – “So everyone can know that independence means one can use it properly, or one can misuse it. That is independence. If you make it one way only, that is not independence, that is force.” (Los Angeles, June 23, 1975)

मीरा चरित्र भाग 3

🌾॥ मीरा चरित ॥🌾
                   (3)

क्रमशः से आगे.......


🔺कृपण के धन की भाँति मीरा ठाकुर जी को अपने से चिपकाये माँ के कक्ष में आ गई ।वहाँ एक झरोखे में लकड़ी की चौकी रख उस पर अपनी नई ओढ़नी बिछा ठाकुर जी को विराजमान कर दिया ।थोड़ी दूर बैठ उन्हें निहारने लगी ।रह रह कर आँखों से आँसू झरने लगे ।

                
🔸आज की इस उपलब्धि के आगे सारा जगत तुच्छ हो गया ।जो अब तक अपने थे वे सब पराये हो गये और आज आया हुआ यह मुस्कुराता हुआ चेहरा ऐसा अपना हुआ जैसा अब तक कोई न था ।सारी हंसी खुशी और खेल तमाशे सब कुछ इन पर न्यौछावर हो गया ।ह्रदय में मानों उत्साह उफन पड़ा कि ऐसा क्या करूँ, जिससे यह प्रसन्न हो ।

            
🔺अहा, कैसे देख रहा है मेरी ओर ? अरे मुझसे भूल हो गई ।तुम तो भगवान हो और मैं आपसे तू तुम कर बात कर गई ।आप कितने अच्छे हैं जो स्वयं कृपा कर उस संत से मेरे पास चले आये ।मुझसे कोई भूल हो जाये तो आप रूठना नहीं , बस बता देना ।अच्छा बताओ उन महात्मा की याद तो नहीं आ रही -वह तो तुम्हें मुझे देते रो ही पड़े थे ।मैं तुम्हें अच्छे से रखूँगी- स्नान करवाऊँगी, सुलाऊँगी और ऐसे सजाऊँगी कि सब देखते ही रह जायेंगे ।मैं बाबोसा को कह कर तुम्हारे लिए सुंदर पलंग, तकिये, गद्दी ,और बढ़िया वागे (पोशाक) भी बनवा दूँगी । फिर कभी मैं तुम्हें फुलवारी में और कभी यहाँ के मन्दिर चारभुजानाथ के दर्शन को ले चलूँगी ।वे तो सदा ऐसे सजे रहते है जैसे अभीअभी बींद (दूल्हा ) बने हो ।
             

🔸मीरा ने अपने बाल सरल ह्रदय से कितनी ही बातें ठाकुर जी का दिल लगाने के लिए कर डाली ।न तो उसे कुछ खाने की सुध थीं और न किसी और काम में मन लगता था ।माँ ने ठाकुर जी को देखा तो बोली ,"क्या अपने ठाकुर जी को भी भूखा रखेगी? चल उठ भोग लगा और फिर तू भी प्रसाद पा ।"

🔺मीरा: अरे हाँ, यह बात तो मैं भूल ही गई ।फिर उसने भोग की सब व्यवस्था की।


🔸दूदा जी का हाथ पकड़ उन्हें अपने ठाकुर जी के दर्शन के लिए लाते मीरा ने उन्हें सब बताया ।


🔺मीरा: बाबोसा उन्होंने स्वयं मुझे ठाकुर जी दिए और कहा कि स्वप्न में ठाकुर जी ने कहा कि अब मैं मीरा के पास ही रहूँगा ।
              

🔸दूदाजी ने दर्शन कर प्रणाम किया तो बोले ," भगवान को लकड़ी की चौकी पर क्यों ? मैं आज ही चाँदी का सिंहासन मंगवा दूंगा ।"


🔺मीरा: हाँ बाबोसा ।और मखमल की गादी तकिये, चाँदी के बर्तन ,वागे और चन्दन का हिंडोला भी ।
दूदाजी : अवश्य बेटा ।सब सांझ तक आ जायेगा ।


🔸मीरा: पर बाबोसा , मैं उन महात्मा से ठाकुर जी का नाम पूछना भूल गई ।
दूदाजी :मनुष्य के तो एक नाम होता है ।पर भगवान के जैसे गुण अनन्त है वैसे उनके नाम भी । तुम्हें जो नाम प्रिय लगे , चुन ले ।
मीरा: हाँ आप नाम लीजिए  ।

          
🔺ठीक है ।कृष्ण , गोविंद , गोपाल , माधव, केशव, मनमोहन , गिरधर.............
बस, बस बाबोसा ।मीरा उतावली हो बोली-यह गिरधर नाम सबसे अच्छा है ।इस नाम का अर्थ क्या है?
      

🔸दूदाजी ने अत्यंत स्नेह से ठाकुर जी की गिरिराज धारण करने की लीला सुनाई ।बस तभी से इनका नाम हुआ गिरधर ....... ।

           
🔺मीरा भाव विभोर हो मूर्छित हो गई।


क्रमशः ...........


🌾श्री राधारमणाय समर्पणं 🌾

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Monday, May 17, 2021

मीरा चरित्र भाग 2

🌾॥मीरा चरित॥🌾
                    (2)

क्रमशः से आगे....


🔻दूसरे दिन प्रातःकाल मीरा उन संत के निवास पर ठाकुर जी के दर्शन हेतु जा पहुँची ।मीरा प्रणाम करके एक तरफ बैठ गई ।संत ने पूजा समापन कर मीरा को प्रसाद देते हुए कहा," बेटी , तुम ठाकुर जी को पाना चाहती हो न!"


🔸मीरा: बाबा, किन्तु यह तो आपकी साधना के साध्य है (मीरा ने कांपते स्वर में कहा) ।


🔻बाबा : अब ये तुम्हारे पास रहना चाहते है- तुम्हारी साधना के साध्य बनकर , ऐसा मुझे इन्होने कल रात स्वप्न में कहा कि अब मुझे मीरा को दे दो ।( कहते कहते बाबा के नेत्र भर आये) ।इनके सामने किसकी चले ?


🔸मीरा: क्या सच? ( आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से बोली जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ ।)


🔻बाबा: (भरे कण्ठ से बोले ) हाँ ।पूजा तो तुमने देख ही ली है ।पूजा भी क्या - अपनी ही तरह नहलाना- धुलाना, वस्त्र पहनाना और श्रंगार करना , खिलाना -पिलाना ।केवल आरती और lधूप विशेष है ।


🔸मीरा: किन्तु वे मन्त्र , जो आप बोलते है, वे तो मुझे नहीं आते ।


🔻बाबा :मन्त्रों की आवश्यकता नहीं है बेटी। ये मन्त्रो के वश में नहीं रहते। ये तो मन की भाषा समझते है। इन्हें वश में करने का एक ही उपाय है कि  इनके सम्मुख ह्रदय खोलकर रखदो। कोई छिपाव या दिखावा नहीं करना। ये धातु के दिखते है पर है नहीं। इन्हें अपने जैसा ही मानना।

            
🔸मीरा ने संत के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और जन्म जन्म के भूखे की भाँति अंजलि फैला दी ।संत ने अपने प्राणधन ठाकुर जी को मीरा को देते हुए उसके सिर पर हाथ रखकर गदगद कण्ठ से आशीर्वाद दिया -"भक्ति महारानी अपने पुत्र ज्ञान और वैराग्य सहित तुम्हारे ह्रदय में निवास करें, प्रभु सदा तुम्हारे सानुकूल रहें ।"

             
🔻मीरा ठाकुर जी को दोनों हाथों से छाती से लगाये उन पर छत्र की भांति थोड़ी झुक गई और प्रसन्नता से डगमगाते पदों से वह अन्तःपुर की ओर चली............


क्रमशः ........

🌾श्री राधारमणाय समर्पणम्🌾

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Sunday, May 16, 2021

मीरा चरित्र भाग 1

🌾॥जय गौर हरि ॥🌾
 
🌾मीरा चरित   🌾 (1)


🔻भारत के एक प्रांत राज्यस्थान का क्षेत्र है मारवाड़ -जो अपने वासियों की शूरता, उदारता, सरलता और भक्ति के लिये प्रसिद्ध रहा है ।मारवाड़ के शासक राव दूदा सिंह बड़े प्रतापी हुए ।उनके चौथे पुत्र रत्नसिंह जी और उनकी पत्नी वीर कुंवरी जी के यहां मीरा का जन्म संवत 1561 (1504 ई०) में हुआ ।
       
    
🔸राव दूदा जी जैसे तलवार के धनी थे, वैसे ही वृद्धावस्था में उनमें भक्ति छलकी पड़ती थी ।पुष्कर आने वाले अधिकांश संत मेड़ता आमंत्रित होते और सम्पूर्ण राजपरिवार सत्संग -सागर में अवगाहन कर धन्य हो जाता ।

            
🔻मीरा का लालन पालन दूदा जी की देख रेख में होने लगा ।मीरा की सौंदर्य सुषमा अनुपम थी ।मीरा के भक्ति संस्कारों को दूदा जी पोषण दे रहे थे ।वर्ष भर की मीरा ने कितने ही छोटे छोटे कीर्तन दूदा जी से सीख लिए थे ।किसी भी संत के पधारने पर मीरा दूदा जी की प्रेरणा से उन्हें अपनी तोतली भाषा में भजन सुनाती और उनका आशीर्वाद पाती ।अपने बाबोसा की गोद में बैठकर शांत मन से संतो से कथा वार्ता सुनती ।

           
🔸दूदा जी की भक्ति की छत्रछाया में धीरे धीरे मीरा पाँच वर्ष की हुई ।एक बार ऐसे ही मीरा राजमहल में ठहरे एक संत के समीप प्रातःकाल जा पहुँची ।वे उस समय अपने ठाकुर जी की पूजा कर रहे थे ।मीरा प्रणाम कर पास ही बैठ गई और उसने जिज्ञासा वश कितने ही प्रश्न पूछ डाले-यह छोटे से ठाकुर जी कौन है? ; आप इनकी कैसे पूजा करते है? संत भी मीरा के प्रश्नों का एक एक कर उत्तर देते गये ।फिर मीरा बोली ," यदि यह मूर्ति आप मुझे दे दें तो मैं भी इनकी पूजा किया करूँगी ।" संत बोले ,"नहीं बेटी ! अपने भगवान किसी को नहीं देने चाहिए ।वे हमारी साधना के साध्य है ।
           

🔻मीरा की आँखें भर आई ।निराशा से निश्वास छोड़ उसने ठाकुर जी की तरफ़ देखा और मन ही मन कहा-" यदि तुम स्वयं ही न आ जाओ तो मैं तुम्हें कहाँ से पाऊँ?" और मीरा भरे मन से उस मूर्ति के बारे में सोचती अपने महल की ओर बढ़ गई........... ।


क्रमशः


🌾श्री राधारमणाय समर्पणं 🌾

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जय राधा माधव

(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी। 
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन। 
(जय) यमुनातीर वनचारी॥

अर्थ
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।

Saturday, May 15, 2021

महाप्रसादे गोविन्दे

महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। 
स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥1॥[महाभारत] 
शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, 
जीवे फेले विषय-सागरे। 
तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, 
ताके जेता कठिन संसारे॥2॥
कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, 
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। 
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, 
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥

अर्थ
(1) गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत]
(2) शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। 
(3) भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।

जय जय गोराचाँदेर आरतिक शोभा

महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। 
स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥1॥[महाभारत] 
शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, 
जीवे फेले विषय-सागरे। 
तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, 
ताके जेता कठिन संसारे॥2॥
कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, 
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। 
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, 
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥

अर्थ
(1) गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत]
(2) शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। 
(3) भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।

Friday, May 14, 2021

अक्षय तृतीया* (आखा तीज)_

_*अक्षय तृतीया* (आखा तीज)_, [वैशाख ]
उसका महत्व क्यों है और जानिए इस  दिन कि कुछ महत्वपुर्ण जानकारियाँ:
🕉 ब्रह्माजी के पुत्र *अक्षय कुमार* का अवतरण।
🕉 *माँ अन्नपूर्णा* का जन्म।
🕉 *चिरंजीवी महर्षी परशुराम* का जन्म हुआ था इसीलिए आज *परशुराम जन्मोत्सव* भी हैं।
🕉 *कुबेर* को खजाना मिला था।
🕉 *माँ गंगा* का धरती अवतरण हुआ था।
🕉 सूर्य भगवान ने पांडवों को *अक्षय पात्र* दिया।
🕉 महाभारत का *युद्ध समाप्त* हुआ था।
🕉 वेदव्यास जी ने *महाकाव्य महाभारत की रचना* गणेश जी के साथ शुरू किया था।
🕉 प्रथम तीर्थंकर *आदिनाथ ऋषभदेवजी भगवान* के 13 महीने का कठीन उपवास का *पारणा इक्षु (गन्ने) के रस से किया* था।
🕉 प्रसिद्ध तीर्थ स्थल *श्री बद्री नारायण धाम* का कपाट खोले जाते है।
🕉 बृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर में *श्री कृष्ण चरण के दर्शन* होते है।
🕉 जगन्नाथ भगवान के सभी *रथों को बनाना प्रारम्भ* किया जाता है।
🕉 आदि शंकराचार्य ने *कनकधारा स्तोत्र* की रचना की थी।
🕉 *अक्षय* का मतलब है जिसका कभी क्षय (नाश) न हो!!!
🕉 *अक्षय तृतीया अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है....!!!*

अक्षय रहे *सुख* आपका,😌
अक्षय रहे *धन* आपका,💰
अक्षय रहे *प्रेम* आपका,💕
अक्षय रहे *स्वास्थ* आपका,💪
अक्षय रहे *रिश्ता* हमारा 🌈
अक्षय तृतीया की आपको और आपके सम्पूर्ण परिवार को *हार्दिक शुभकामनाएं*

अक्षय तृतीया

आज अक्षय तृतीया(चन्दन यात्रा) की आप सबको बहुत बहुत बधाई !!

आज राजभोग पर श्रीराधारमण लाल जू चन्दन की पोशाकी धारण करेंगे। आज श्रीजी को 'सतु' का भोग धराया जाता हैं। यह भोग केवल अक्षय तृतीया पर ही लगाया जाता हैं।

श्रीठाकुर जी को इतनी गर्मी में शीतलता प्रदान करने के लिए आज (अक्षय तृतीया)से शरद पूर्णिमा तक राजभोग आरती बत्ती के स्थान पर पुष्पों से की जायेगी। 

आज से ही हमारे श्रीराधारमण जी अपने भक्तों को आनन्दित करने के लिए प्रतिदिन संध्या को गर्भ गृह से बाहर जगमोहन पर विराजेंगे।

श्रीराधारमण धरे हो चन्दन। 
बैसाख मास पावस तृत्य तिथि सुर मुनि करत हो वन्दन। 
प्रेम सीतल कपूर सो पायो छूटो सब विरह ताप सो बंधन। 
मंद हसि हसि लेप करत प्रिया भयो उष्ण मान को खंडन।  
'चैतन्यदास' जुगल छवि को निरखत करत सदा पद वंदन।

🙌🏼 श्रीराधारमण दासी परिकर 🙌🏼

Thursday, May 13, 2021

भगवान के नाम जप में होने वाले दस अपराध

(1) भगवान्नाम के प्रचार में सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले महाभागवतों की निन्दा करना। 
(2) शिव, ब्रह्मा आदि देवों के नाम को भगवान्नाम के समान अथवा उससे स्वतन्त्र समझना। 
(3) गुरु की अवज्ञा करना अथवा उन्हें साधारण मनुषय समझना। 
(4) वैदिक शास्त्रों अथवा प्रमाणों का खण्डन करना। 
(5) हरे कृष्ण महामन्त्र के जप की महिमा को काल्पनिक समझना। 
(6) पवित्र भगवन्नाम में अर्थवाद का आरोप करना। 
(7) नाम के बल पर पाप करना। 
(8) हरे कृष्ण महामन्त्र के जप को वेदों में वर्णित एक शुभ सकाम कर्म (कर्मकाण्ड) के समान समझना। 
(9) अश्रद्धालु व्यक्त्ति को हरिनाम की महिमा का उपदेश करना। 
(10) भगवन्नाम के जप में पूर्ण विश्वास न होना और इसकी इतनी अगाध महिमा श्रवण करने पर भी भौतिक आसक्ति बनाये रखना। 
भगवन्नाम का जप करते समय पूर्ण रूप से सावधान न रहना भी अपराध है। प्रत्येक वैष्ण्व भक्त को चाहिए कि इन दस प्रकार के अपराधों से सदा बच कर रहे, ताकि श्रीकृष्ण के चरण कमलों में पे्रम शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो, जो मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य है। 

अर्थ
दस नाम अपराधों को पद्म पुराण में इस प्रकार सूचीबद्ध किया गया है। चैतन्य- चरितमित्र (आदि लीला 8.24, तात्पर्य) में उद्धृत है। विवरण के लिए संदर्भ देखें। 
(1)
सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते
यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम्
(2)
शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं
धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः
(3)
गुरोरवज्ञा
(4)
श्रुतिशाñनिन्दनम्
(5)
अर्थवादः
(6)
हरिनाम्नि कल्पनम्
(7)
नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर्
न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः
(8)
धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व
शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः
(9)
अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति
यश्चोपदेशः शिवनामापराधः
(10)
श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः
अहंममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत्
अपि प्रमादः

नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी

वृन्दायै तुलसी देवयै प्रियायै केशवस्य च। 
कृष्णभक्तिप्रदे देवी सत्यवत्यै नमो नमः॥
नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी। 
राधा-कृष्ण-सेवा पाब एइ अभिलाषी॥1॥
ये तोमार शरण लय, तार वाञ्छा पूर्ण हय। 
कृपा करि कर’तेारे वृन्दावनवासी॥2॥
मोर एइ अभिलाष, विलासकुंजे दिओ वास। 
नयने हेरिबो सदा युगल-रूप-राशि॥3॥
एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर। 
सेवा-अधिकार दिये कर निज दासी॥4॥
दीन कृष्णदासे कय, एइ येन मोर हय। 
श्रीराधा-गोविन्द-प्रेमे सदा येन भासि॥5॥
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च। 
तानि-तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणः पदे-पदे॥

अर्थ
हे वृन्दे, हे तुलसी देवी, आप भगवान्‌ केशव की प्रिया हैं। हे कृष्णभक्ति प्रदान करने वाली सत्यवती देवी, आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। 
(1) भगवान्‌ श्रीकृष्ण की प्रियतमा हे तुलसी देवी! मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ। मेरी एकमात्र इच्छा है कि मैं श्रीश्रीराधाकृष्ण की प्रेममयी सेवा प्राप्त कर सकूँ। 
(2) जो कोई भी आपकी शरण लेता है उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। उस पर आप अपनी कृपा करती हैं और उसे वृन्दावनवासी बना देती हैं। 
(3) मेरी यही अभिलाषा है कि आप मुझे भी वृन्दावन के कुंजों में निवास करने की अनुमति दें, जिससे मैं श्रीराधाकृष्ण की सुन्दर लीलाओं का सदैव दर्शन कर सकूँ। 
(4) आपके चरणों में मेरा यही निवेदन है कि मुझे किसी ब्रजगोपी की अनुचरी बना दीजिए तथा सेवा का अधिकार देकर मुझे आपकी निज दासी बनने का अवसर दीजिए। 
(5) अति दीन कृष्णदास आपसे प्रार्थना करता है, “मैं सदा सर्वदा श्रीश्रीराधागोविन्द के प्रेम में डूबा रहूँ। ”
श्रीमती तुलसी देवी की परिक्रमा करने से प्रत्येक पद पर ब्रह्महत्यापर्यन्त सभी पापों का नाश होता है।

चै.च. आदि १७.२१ - न्यू वृन्दावन, अमरीका


यदि आप यहां आते हैं, अगर आप सुनते हैं और जप करते हैं, तो धीरे-धीरे... कृष्ण आपके भीतर है । वे एक मित्र के रूप में आपके हृदय में बैठे है, दुश्मन के रूप में नहीं । कृष्ण हमेशा आपके मित्र है । सुहृदम सर्व-भूतानाम (भ.गी. ५.२९) । आप मित्र खोज रहे हैं बात करने, मजाक करने, प्रेम करने के लिए । कृष्ण उस उद्देश्य के लिए वहां बैठे है । अगर आप कृष्ण से प्रेम करते हैं, अगर आप कृष्ण से दोस्ती करते हैं, अगर आप कृष्ण से प्रेम करते हैं, तो आपका जीवन सफल होगा । आपको किसी अन्य मित्र को खोजने की ज़रूरत नहीं है । मित्र पहले से ही वहां है । या तो आप लड़के हैं या लड़की हैं, आपको अपने भीतर एक अच्छा मित्र मिल जाएगा । यह योग प्रणाली है, जब आप इस मित्र को महसूस करते हैं । तो यह मित्र बहुत अच्छे है, जैसे ही आप उनके बारे में सुनने के लिए थोड़ा इच्छुक हो जाते हैं, शृण्वताम स्व-कथाः - कृष्ण के बारे में, कोई अन्य बकवास बात नहीं, बस कृष्ण के बारे में - तब कृष्ण बहुत प्रसन्न होंगे । वे तुम्हारे भीतर है । शृण्वताम स्व-कथाः कृष्ण पुण्य-श्रवण-कीर्तनः, ह्रदि अंत: स्थः (श्री.भा. १.२.१७) । हृत का मतलब हृदय है । अन्तः स्थो । अन्तः स्थो का अर्थ है 'जो आपके हृदय में स्थित है' ।

श्रील प्रभुपाद - प्रवचन चै.च. आदि १७.२१ - न्यू वृन्दावन, अमरीका

Wednesday, May 12, 2021

Bhag.Gita

🔸That is the difficulty in India. As soon as we shall say, "Krishna is the Supreme Lord, Krishna is the..., there is no more superior person than Krishna," others will say, "No, why this gentleman is not superior than Krishna?" That is the difficulty. 
They'll not accept. Their brain has been full with hodge-podge things. Therefore they cannot take Krishna consciousness so... Of course, at heart, in India, everyone feels for Krishna, but they have been educated in such a wrong way, they cannot accept Krishna as the Supreme, as Krishna says, मत्त: परतरं नान्यत् [Bhag.Gita 7.7]. This is the difficulty.🔸

_ (Prabhupada lecture Bg As it is 7.7 Bombay, February 22nd 1974)

Tuesday, May 11, 2021

नमस्ते नृसिंहाय

नमस्ते नृसिंहाय  
प्रह्लादह्लाद दायिने। 
हिरण्यकशिपोर्वक्षः 
शिलाटंक नखालये॥1॥
इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो 
यतो यतो यामि ततो नृसिंहः। 
बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो 
नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥2॥
तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌ 
दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌ 
केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥3॥

अर्थ
(1) मैं नृसिंह भगवान्‌ को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नख दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल के ऊपर छेनी के समान हैं। 
(2) नृसिंह भगवान्‌ यहाँ है और वहाँ भी हैं। मैं जहाँ कहीं भी जाता हॅूँ वहाँ नृसिंह भगवान्‌ हैं। वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं। मैं नृसिंह भगवान्‌ की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं। 
(3) हे केशव! हे जगत्पते! हे हरि! आपने नरसिंह का रूप धारण किया है आपकी जय हो। जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भ्रमर को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार भ्रमर सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर कर-कमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है।

श्रील प्रभुपाद

"जो लोग भगवान् के धाम को वापस जाना चाहते हैं उन्हें न केवल सिद्ध पुरुषों की सेवा करनी चाहिए , अपितु उन्हें ऐसे भौतिकतावादी पुरुषों का साथ छोड़ देना चाहिए जिनका एकमात्र उद्देश्य धन कमाना और धन को इन्द्रियतृप्ति में व्यय करना है।" 

*-श्रील प्रभुपाद* 🌸

Krishna is Supreme Personality of Godhead

This young boy Krishna seen in paintings below, is the Supreme Personality of Godhead and cause of ALL causes.

This means from Krishna all Narayana and Vishnu forms originate because they are His expansions.

Krishna is the Supreme Lord however, to all His family members and associates in Vrindavana, Krishna is not seen as the Supreme God but as everyone's very dear friend and protector.

Srimad Bhagavatam Canto 7 Chapter 10 text 42

By His Divine Grace A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada. 

After Krsna, comes Balarama, after Balarama, is Sankarsana, then Aniruddha, Pradyumna, Narayana and then the purusa-avataras - Maha-Visnu, Garbhodakasayi Visnu and Ksirodakasayi Visnu. 

All of them are Avataras.

In the Brahma-saṁhitā it is said, rāmādi-mūrtiṣu kalā-niyamena tiṣṭhan: (BS 5.39) Rāma, Nṛsiṁha, Varāha and many others are consecutive expansions of the Supreme Personality of Godhead. 

After Kṛṣṇa comes Balarāma, after Balarāma is Saṅkarṣaṇa, then Aniruddha, Pradyumna, Nārāyaṇa and then the puruṣa-avatāras—Mahā-Viṣṇu, Garbhodakaśāyī Viṣṇu and Kṣīrodakaśāyī Viṣṇu. All of them are avatāras.

In this narration about Kṛṣṇa, the Supreme Personality of Godhead, various expansions or incarnations of the Lord have been described, and the killing of the two demons Hiraṇyākṣa and Hiraṇyakaśipu has also been described.

Avatāras, or incarnations, are expansions of the Supreme Personality of Godhead—Kṛṣṇa, Govinda.

advaitam acyutam anādim ananta-rūpamādyaṁ purāṇa-puruṣaṁ nava-yauvanaṁ cavedeṣu durlabham adurlabham ātma-bhaktaugovindam ādi-puruṣaṁ tam ahaṁ bhajāmi.

"I worship the Supreme Personality of Godhead, Govinda, who is the original person-nondual, infallible, and without beginning. Although He expands into unlimited forms, He is still the original, and although He is the oldest person, He always appears as a fresh youth. 

Such eternal, blissful and all-knowing forms of the Lord cannot be understood by the academic wisdom of the Vedas, but they are always manifest to pure, unalloyed devotees." (BS 5.33) 

The Brahma-saṁhitā describes the avatāras. Indeed, all the avatāras are described in the authentic scriptures. 

No one can become an avatāra, or incarnation, although this has become fashionable in the age of Kali. The avatāras are described in the authentic scriptures (śāstras), and therefore before one risks accepting a pretender as an avatāra, one should refer to the śāstras. 

The śāstras say everywhere that Kṛṣṇa is the original Personality of Godhead and that He has innumerable avatāras, or incarnations. Elsewhere in the Brahma-saṁhitā it is said, rāmādi-mūrtiṣu kalā-niyamena tiṣṭhan: (BS 5.39) Rāma, Nṛsiṁha, Varāha and many others are consecutive expansions of the Supreme Personality of Godhead. 

After Kṛṣṇa comes Balarāma, after Balarāma is Saṅkarṣaṇa, then Aniruddha, Pradyumna, Nārāyaṇa and then the puruṣa-avatāras—Mahā-Viṣṇu, Garbhodakaśāyī Viṣṇu and Kṣīrodakaśāyī Viṣṇu. 

All of them are avatāras.

One must hear about the avatāras. Narrations about such avatāras are called avatāra-kathā, the narrations of Kṛṣṇa's expansions. Hearing and chanting these narrations is completely pious. Sṛṇvatāṁ sva-kathāḥ kṛṣṇaḥ puṇya-śravaṇa-kīrtanaḥ (SB 1.2.17). 

One who hears and chants can become puṇya, purified of material contamination.

Whenever there are references to the avatāras, religious principles are established, and demons who are against Kṛṣṇa are killed. 

The Kṛṣṇa consciousness movement is spreading all over the world with two aims—to establish Kṛṣṇa as the Supreme Personality of Godhead and to kill all the pretenders who falsely present themselves as avatāras. 

The preachers of the Kṛṣṇa consciousness movement must carry this conviction very carefully within their hearts and kill the demons who in many tactful ways vilify the Supreme Personality of Godhead, Kṛṣṇa. 

If we take shelter of Nṛsiṁhadeva and Prahlāda Mahārāja, it will be easier to kill the demons who are against Kṛṣṇa and to thus reestablish Kṛṣṇa's supremacy. 

Kṛṣṇas tu bhagavān svayam: (SB 1.3.28) Kṛṣṇa is the Supreme Lord, the original Lord. Prahlāda Mahārāja is our guru, and Kṛṣṇa is our worshipable God. 

As advised by Śrī Caitanya Mahāprabhu, guru-kṛṣṇa-prasāde pāya bhakti-latā-bīja (CC Madhya 19.151). If we can be successful in getting the mercy of Prahlāda Mahārāja and also that of Nṛsiṁhadeva, then our Kṛṣṇa consciousness movement will be extremely successful.

The demon Hiraṇyakaśipu had so many ways to try to become God himself, but although Prahlāda Mahārāja was chastised and threatened in many ways, he rigidly refused to accept his powerful demoniac father as God. 

Following in the footsteps of Prahlāda Mahārāja, we should reject all the rascals who pretend to be God. We must accept Kṛṣṇa and His incarnations, and no one else.*

Monday, May 10, 2021

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं- इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से (सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं, वे केवल धर्म को स्थापन करने और संसार का उद्धार करने के लिए ही अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं। इसलिए परमेश्वर के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है, ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ आसक्तिरहित संसार में बर्तता है, वही उनको तत्व से जानता है।) जान लेता है, वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥9॥

The Seven Mothers :

The Seven Mothers :

(1) Ādau mātā: real mother, from whose body I have taken my birth.
(2) guru-patni: the wife of the spiritual master.
(3) brāhmaṇī: wife of a _brāhmaṇa_.
(4) rāja-patnikā: the wife of the king.
(5) dhenu: the cow, she gives us milk.
(6) dhātrī: the nurse.
(7) pṛthvi: the earth.

Sunday, May 9, 2021

THE DEVOTEES LOOK VERY NICE, BRIGHT FACED

THE DEVOTEES LOOK VERY NICE, BRIGHT FACED

If the society becomes Kṛṣṇa conscious, or spiritually advanced, the so-called material advancement will automatically be there. There will be no scarcity. 

For example, take for practical example, we have got about one hundred centers. So we are simply engaged in Kṛṣṇa consciousness business. So, so far our material necessities are concerned, we are not badly situated. We are living in a nice house, we are eating nice foodstuff, we have got nice dress, and the devotees look very nice, bright-faced. What is the wrong there? 

But they (the devotees) are not busy for earning money or going to the office or going to the factory or so many other sources of business. They are depending on Kṛṣṇa, and Kṛṣṇa is supplying them. 

- Srila Prabhupada 
Lecture SB 1.1.9 Auckland Feb 20, 1973

इसी को माया कहते हैं ...


*इसी को माया कहते हैं ...*

हमारी बिमारी यह है की हम विद्रोही हैं । हम किसी को अधिकारी मानने के लिए तैयार नहीं हैं । फिर भी प्रकृति इतनी शक्तिशाली है की वह किसी न किसी अधिकारी को हमारे ऊपर थोप ही देती है । हमें अपनी इन्द्रियों के माध्यम से प्रकृति के आधिपत्य को स्वीकार करना ही पड़ता है । यह कहना कि हम आत्म निर्भर हैं , व्यर्थ हैं , यह हमारी मुर्खता है । हम किसी के अधीन हैं और फिर भी हम कहते हैं की हमें किसी का आधिपत्य नहीं चाहिए । इसी को माया कहते हैं । हालाँकि हममें थोड़ी सी स्वतंत्रता अवश्य है की हम यह चुन सके की हम अपनी इन्द्रियों का आधिपत्य स्वीकार करें या श्रीकृष्ण का । किन्तु सबसे बड़े और परम अधिपति तो श्रीकृष्ण ही हैं क्योंकि वे हमारे शाश्चत शुभचिंतक हैं और वे हमेशा हमारे हित की ही बात करते हैं । जब हमें किसी का आधिपत्य स्वीकार करना ही है , तो क्यों न कृष्ण को ही अपना अधिपति बनायें ? 
*-( रसराज कृष्ण )*
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-Srila Prabhupada 
#leagueofdevotees

में हैरान हूं ।

मैं हैरान हूं ...लोग भगवान को सब कुछ अर्पण करते हैं लेकिन अपना मन नहीं, जबकि श्रीमद भगवत गीता के अध्याय 9 श्लोक 34 में श्री कृष्णा कह रहे हैं  मन्मना भव मद भक्तो .... अर्थात सदैव अपना मन मेरे चिंतन में लगाओ ,अपना मन मुझे अर्पण कर दो, मेरे भक्त बनो। इस प्रकार  निश्चित रूप से तुम मुझको प्राप्त करोगे। हरे कृष्ण

84 लाख योनियों में भटकने के बाद दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलता है.

84 लाख योनियों में भटकने के बाद दुर्लभ मनुष्य जन्म मिलता है. 

ब्रह्मवैवर्त के प्रकृति खंड (अध्याय  35-36) में दुर्वासा-इंद्र संवाद से ज्ञात होता जीवन के बाद जिसने लेशमात्र पुण्य किया होता है, उसे अन्य देवताओं की उपासना का मंत्र मिलता है।
 
2. ऐसे अनेक जन्मों के बाद, सब कर्मों के साक्षी सूर्यदेव का मंत्र मिलता है, जिससे वह शुद्ध हो जाता है ।
 
3. सूर्यदेव की 3 जन्म की उपासना के बाद समस्त विघ्न विनाशक गणेश जी की उपासना करता है. अनेक जन्मों की उपासना के बाद, उसके सारे विघ्न दूर हो जाते है व दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है।
 
4. फिर वह विष्णु मायारूपणी दुर्गा जी की उपासना अनेक जन्मों तक करता है, जिससे वह ज्ञान का सार प्राप्त कर लेता है। 
 
5. फिर वह श्रीकृष्णज्ञान के अधिदेवता शिव जी की उपासना 3 जन्मों तक करता है।
 
6. फिर अगले जन्म वह हरिभक्ति प्राप्त करता है और भक्तों के संग़ से उसे कृष्ण मंत्र मिलता है. 

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण  हरे हरे।
हरे राम हरे राम   राम राम   हरे हरे।।

Srila Prabhupada

When there is suffering given by Krishna, a devotee does not take it as suffering. A devotee thinks, "It is a favour of Krishna that He has put me into suffering." They never see suffering as suffering. It is exactly like a son who knows his father well. If the father slaps, the son never protests. He knows that "It is good for me." Similarly, a devotee is never disturbed when there is suffering given by Krishna.

Srila Prabhupada
Bombay, May 02, 1974

हमारी भक्ति में प्रगति महामन्त्र जप पर ही निर्भर करती है

हमारी भक्ति में प्रगति महामन्त्र जप पर ही निर्भर करती है!
श्रील प्रभुपाद जी इस्कान के संस्थापक के अनुसार, 'भक्ति में हमारी ९९ प्रतिशत प्रगति जप पर निर्भर करती है। यह साधक के लिए प्राणों के समान होती है। इस्कॉन में हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने को कहा जाता है। एक भक्त को दिन में कम से कम १६ माला जाप महामंत्र का करना होता है। कृष्ण महामंत्र इस प्रकार है, 'हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे। ** इस महामंत्र का अर्थ है, हे परम आकर्षक भगवान श्री कृष्ण। हे श्रीकृष्ण की अंतरंग शक्ति श्रीमती राधा रानी। कृपया मुझे अपनी दिव्य सेवा में संलग्न करें। श्रील प्रभुपाद जी के अनुसार, 'हमें हरे कृष्ण महामंत्र का जप उसी प्रकार करना चाहिए जैसे एक शिशु अपनी माता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोता है।

संसार दावानल

संसार-दावानल-लीढ-लोक
त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। 
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य 
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत 
वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन। 
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना। 
श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ। 
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥
चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद- 
स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्। 
कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार- 
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्। 
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥
निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै 
या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया। 
तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥
साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः 
उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः। 
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥
यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो 
यस्याऽप्रसादन्न्‌ न गति कुतोऽपि। 
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥

अर्थ
17 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुए श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कृष्णभावनाभावित शिष्य परंपरा में एक महान गुरु हैं। वे कहते हैं कि – 
श्रीमद्‌गुरोरष्टकमेतदुच्चे-ब्राह्मे मुहूर्त्ते पठति प्रयत्नात। 
यस्तेन वृन्दावन नाथ साक्षात्‌ सवैव लभ्या जनुषोऽन्त एव॥
“जो वयक्ति ब्रह्ममुहूर्त के शुभसमय में श्रीगुरु के प्रति गुणगान युक्त इस प्रार्थना का उच्चस्वर से एवं सावधानीपूर्वक गान करता है, उसे मृत्यु के समय वृन्दावननाथ-कृष्ण की प्रत्यक्ष सेवा का अधिकार प्राप्त होता है। ” 
(1) श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्‌) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(2) श्रीभगवान्‌ के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(3) श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(4) श्री गुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात्‌ चबाए जाने वाले, पेय अर्थात्‌ पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात्‌ चूसे जाने वाले - इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान्‌ का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(5) श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(6) श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीश्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(7) श्रीभगवान्‌ के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान्‌ ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारिओं ने स्वीकार किया है। भगवान्‌ श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(8) श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान्‌ श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्‌गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।

Srimad Bhagavatam 6.14.3

In this material world there are as many living entities as atoms. Among these living entities, a very few are human beings, and among them, few are interested in following religious principles.
Srimad Bhagavatam 6.14.3 

पवित्र धाम में क्या करना चाहिए?

पवित्र धाम में क्या करना चाहिए?
किसी पवित्र स्थान की यात्रा का मतलब केवल मंदिरों का दर्शन करना, पवित्र नदी में स्नान करना या स्नान करना नहीं है। पवित्र धाम के दर्शन का उद्देश्य भोग नहीं है।

वास्तव में व्यक्ति को संयम का पालन करना चाहिए और तपस्या से गुजरना चाहिए।

आधुनिक समय में भगवान कृष्ण की वैदिक संस्कृति के अग्रणी प्रतिनिधि उनकी दिव्य अनुग्रह एसी भक्तिवेदांत स्वामी श्रील प्रभुपाद (1896-1977), कृष्णा चेतना के लिए इंटरनेशनल सोसायटी के संस्थापक आचार्य हैं। उन्होंने निर्देश दिया है कि यदि कोई पवित्र स्थान पर जाता है, तो उसे वहाँ रहने वाले भक्तों की खोज करनी चाहिए। उन्हें उनसे सबक लेना चाहिए और अपने दिन को व्यावहारिक जीवन में इस तरह के निर्देशों को लागू करने का प्रयास करना चाहिए।
पवित्र स्थान केवल फोटो और वीडियो लेने के लिए नहीं हैं। वे प्रेरणा लेने और परमात्मा से जुड़ने के लिए हैं। इसकी जगह भगवान या कृष्ण के साथ लोगों का खोया हुआ संबंध फिर से स्थापित करना - सभी आकर्षक। जीवन के एक दिन में परमात्मा से संबंध को मजबूत करना पवित्र धाम की यात्रा की सफलता है

तुलसी विलम न कीजिये ।

तुलसी विलम न कीजिये
भजिये नाम सुजान। 
जगत मजुरी देत है
काहे राखे भगवान। 

_*जब दुनिया काम के बदले मजदूरी देती है तो भगवान कैसे आपका रख सकते हैं*_

इसलिए आप भजन तो कीजिए भगवान
आपको उसका फल अवश्य ही मिलेगा।