Showing posts with label वैष्णव गीत. Show all posts
Showing posts with label वैष्णव गीत. Show all posts

Sunday, May 16, 2021

जय राधा माधव

(जय) राधा माधव (जय) कुंजबिहारी। 
(जय) गोपीजन वल्लभ (जय) गिरिवरधारी॥
(जय) यशोदा नंदन (जय) ब्रजजनरंजन। 
(जय) यमुनातीर वनचारी॥

अर्थ
वृन्दावन की कुंजों में क्रीड़ा करने वाले राधामाधव की जय! कृष्ण गोपियों के प्रियतम हैं तथा गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले हैं। कृष्ण यशोदा के पुत्र तथा समस्त व्रजवासियों के प्रिय हैं और वे यमुना तट पर स्थित वनों में विचरण करते हैं।

Saturday, May 15, 2021

महाप्रसादे गोविन्दे

महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। 
स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥1॥[महाभारत] 
शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, 
जीवे फेले विषय-सागरे। 
तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, 
ताके जेता कठिन संसारे॥2॥
कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, 
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। 
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, 
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥

अर्थ
(1) गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत]
(2) शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। 
(3) भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।

जय जय गोराचाँदेर आरतिक शोभा

महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। 
स्वल्पपुण्यवतां राजन्‌ विश्वासो नैव जायते॥1॥[महाभारत] 
शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, 
जीवे फेले विषय-सागरे। 
तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, 
ताके जेता कठिन संसारे॥2॥
कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, 
स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। 
सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, 
प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥

अर्थ
(1) गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत]
(2) शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्‌टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। 
(3) भगवान्‌ कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो।

Thursday, May 13, 2021

नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी

वृन्दायै तुलसी देवयै प्रियायै केशवस्य च। 
कृष्णभक्तिप्रदे देवी सत्यवत्यै नमो नमः॥
नमो नमः तुलसी कृष्णप्रेयसी। 
राधा-कृष्ण-सेवा पाब एइ अभिलाषी॥1॥
ये तोमार शरण लय, तार वाञ्छा पूर्ण हय। 
कृपा करि कर’तेारे वृन्दावनवासी॥2॥
मोर एइ अभिलाष, विलासकुंजे दिओ वास। 
नयने हेरिबो सदा युगल-रूप-राशि॥3॥
एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर। 
सेवा-अधिकार दिये कर निज दासी॥4॥
दीन कृष्णदासे कय, एइ येन मोर हय। 
श्रीराधा-गोविन्द-प्रेमे सदा येन भासि॥5॥
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि च। 
तानि-तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणः पदे-पदे॥

अर्थ
हे वृन्दे, हे तुलसी देवी, आप भगवान्‌ केशव की प्रिया हैं। हे कृष्णभक्ति प्रदान करने वाली सत्यवती देवी, आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। 
(1) भगवान्‌ श्रीकृष्ण की प्रियतमा हे तुलसी देवी! मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ। मेरी एकमात्र इच्छा है कि मैं श्रीश्रीराधाकृष्ण की प्रेममयी सेवा प्राप्त कर सकूँ। 
(2) जो कोई भी आपकी शरण लेता है उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। उस पर आप अपनी कृपा करती हैं और उसे वृन्दावनवासी बना देती हैं। 
(3) मेरी यही अभिलाषा है कि आप मुझे भी वृन्दावन के कुंजों में निवास करने की अनुमति दें, जिससे मैं श्रीराधाकृष्ण की सुन्दर लीलाओं का सदैव दर्शन कर सकूँ। 
(4) आपके चरणों में मेरा यही निवेदन है कि मुझे किसी ब्रजगोपी की अनुचरी बना दीजिए तथा सेवा का अधिकार देकर मुझे आपकी निज दासी बनने का अवसर दीजिए। 
(5) अति दीन कृष्णदास आपसे प्रार्थना करता है, “मैं सदा सर्वदा श्रीश्रीराधागोविन्द के प्रेम में डूबा रहूँ। ”
श्रीमती तुलसी देवी की परिक्रमा करने से प्रत्येक पद पर ब्रह्महत्यापर्यन्त सभी पापों का नाश होता है।

Tuesday, May 11, 2021

नमस्ते नृसिंहाय

नमस्ते नृसिंहाय  
प्रह्लादह्लाद दायिने। 
हिरण्यकशिपोर्वक्षः 
शिलाटंक नखालये॥1॥
इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो 
यतो यतो यामि ततो नृसिंहः। 
बहिर्नृसिंहो हृदये नृसिंहो 
नृसिंहमादि शरणं प्रपद्ये॥2॥
तव कर-कमल-वरे नखम्‌ अद्‌भुत-श्रृंङ्गम्‌ 
दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंङ्गम्‌ 
केशव धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे॥3॥

अर्थ
(1) मैं नृसिंह भगवान्‌ को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नख दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल के ऊपर छेनी के समान हैं। 
(2) नृसिंह भगवान्‌ यहाँ है और वहाँ भी हैं। मैं जहाँ कहीं भी जाता हॅूँ वहाँ नृसिंह भगवान्‌ हैं। वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं। मैं नृसिंह भगवान्‌ की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं। 
(3) हे केशव! हे जगत्पते! हे हरि! आपने नरसिंह का रूप धारण किया है आपकी जय हो। जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भ्रमर को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार भ्रमर सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर कर-कमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है।

Sunday, May 9, 2021

संसार दावानल

संसार-दावानल-लीढ-लोक
त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम्। 
प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य 
वन्दे गुरोःश्रीचरणारविन्दम्॥1॥
महाप्रभोः कीर्तन-नृत्यगीत 
वादित्रमाद्यन्‌-मनसो-रसेन। 
रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरंग-भाजो 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥2॥
श्रीविग्रहाराधन-नित्य-नाना। 
श्रृंगार-तन्‌-मन्दिर-मार्जनादौ। 
युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥3॥
चतुर्विधा-श्री भगवत्‌-प्रसाद- 
स्वाद्वन्न-तृप्तान्‌ हरि-भक्त-संङ्घान्। 
कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥4॥
श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार- 
माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम्। 
प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥
निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै 
या यालिभिर्‌ युक्तिर्‌ अपेक्षणीया। 
तत्राति-दक्ष्याद्‌ अतिवल्लभस्य 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥6॥
साक्षाद्‌-धरित्वेन समस्त शास्त्रैः 
उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः। 
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥7॥
यस्यप्रसादाद्‌ भगवदप्रसादो 
यस्याऽप्रसादन्न्‌ न गति कुतोऽपि। 
ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रि-सन्ध्यं 
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥8॥

अर्थ
17 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रकट हुए श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कृष्णभावनाभावित शिष्य परंपरा में एक महान गुरु हैं। वे कहते हैं कि – 
श्रीमद्‌गुरोरष्टकमेतदुच्चे-ब्राह्मे मुहूर्त्ते पठति प्रयत्नात। 
यस्तेन वृन्दावन नाथ साक्षात्‌ सवैव लभ्या जनुषोऽन्त एव॥
“जो वयक्ति ब्रह्ममुहूर्त के शुभसमय में श्रीगुरु के प्रति गुणगान युक्त इस प्रार्थना का उच्चस्वर से एवं सावधानीपूर्वक गान करता है, उसे मृत्यु के समय वृन्दावननाथ-कृष्ण की प्रत्यक्ष सेवा का अधिकार प्राप्त होता है। ” 
(1) श्रीगुरुदेव (आध्यात्मिक गुरु) कृपासिन्धु (भगवान्‌) से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। जिस प्रकार एक मेघ वन में लगी हुई दावाग्नि पर जल की वर्षा करके उसे शान्त कर देता है, उसी प्रकार श्री गुरुदेव सांसारिक जीवन की प्रज्वलित अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(2) श्रीभगवान्‌ के दिवय नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं। वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन कर रहे हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमाञ्च व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(3) श्रीगुरुदेव मन्दिर में श्रीश्रीराधा-कृष्ण के अर्चाविग्रहों के पूजन में रत रहते हैं तथा वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से श्रीविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा इसी प्रकार श्रीकृष्ण की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(4) श्री गुरुदेव सदैव भगवान्‌ श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात चाटे जानेवाले, चवर्य अर्थात्‌ चबाए जाने वाले, पेय अर्थात्‌ पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात्‌ चूसे जाने वाले - इन चार प्रकार के स्वादिष्ट भोगों का अर्पण करते हैं। जब श्री गुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान्‌ का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे भी तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(5) श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(6) श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीश्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(7) श्रीभगवान्‌ के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्री गुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान्‌ ही के समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी श्रुति-शास्त्र व प्रामाणिक अधिकारिओं ने स्वीकार किया है। भगवान्‌ श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे अतिशय प्रिय प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। 
(8) श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान्‌ श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त होती है। श्री गुरुदेव की कृपा के बिना कोई भी सद्‌गति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्री गुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। कम से कम दिन में तीन बार मुझे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में सादर वन्दना करनी चाहिए।